UCC: असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा और नागालैंड में आदिवासी अपनी अनूठी संस्कृति के साथ रहते हैं। ये आदिवासी अपनी संस्कृति और रीति-रिवाजों को लेकर काफी संवेदनशील हैं। इसमें जरा सा भी दखल का वे उग्र और हिंसक विरोध करते हैं.
अयोध्या में राम मंदिर और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 को खत्म करने के बाद केंद्र की भाजपा सरकार अब अपने तीसरे सबसे अहम एजेंडे समान नागरिक संहिता पर तेजी से आगे बढ़ रही है। लोकसभा चुनाव 2024 से पहले पूरी सियासत इसी यूनिफार्म सिविल कोड के ईदगिर्द ही नजर आएगी। इसलिए केंद्र सरकार भी इस दिशा में तेजी से काम करते हुए दिखाई दे रही है। हालांकि इसी बीच समाज के कई वर्गों से भी तीव्र और तीखा विरोध भी सुनने को मिल रहा है। नागरिक संहिता का सबसे ज्यादा विरोध मुस्लिम समाज के साथ आदिवासी समाज में भी नजर आ रहा है। आदिवासी समाज भी केंद्र सरकार की इस कोशिश के विरोध में आवाज बुलंद कर रहा है। साथ ही जमीन से जुड़े छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट और संथाल परगना टेनेंसी एक्ट पर भी इसका असर होगा। आदिवासी संगठनों के विरोध पर भाजपा नेताओं ने भी चुप्पी साध रखी हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर आदिवासी समाज इसका विरोध करता है, तो भाजपा को नफा से ज्यादा सियासी नुकसान हो सकता है।
इसलिए कर रहे हैं आदिवासी संगठन विरोध
समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर देश के अलग अलग राज्यों में विरोध शुरू हो गया है। हाल ही झारखंड की राजधानी में आदिवासी संगठनों ने अपनी आवाज बुलंद की। आदिवासी संगठनों को डर है कि अगर समान नागरिक संहिता लागू हो जाती है, तो आदिवासी समाज की पहचान ही खत्म हो जाएगी। इतना ही नहीं जमीन से जुड़े सीएनटी, एसपीटी और पेसा कानून पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। आदिवासी नेता देव कुमार धान का कहना है कि कॉमन सिविल कोड आदिवासी समाज पर लागू नहीं हो सकता है, क्योंकि ये संविधान के खिलाफ होगा। समान नागरिक संहिता पांचवीं अनुसूची के तहत आने वाले राज्यों में लागू ही नहीं हो सकता है। लिहाजा, केंद्र सरकार सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए इसे लेकर आगे बढ़ रही है। आदिवासी समाज परंपराओं, प्रथाओं के आधार पर चलता है और यूसीसी यानी कि एक समान कानून लागू होने से आदिवासियों की अस्मिता ही खत्म हो जाएगी।
आदिवासी संगठनों का कहना है कि समान नागरिक संहिता के आने से आदिवासियों के सभी प्रथागत कानून खत्म हो जाएंगे। छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट, संथाल परगना टेनेंसी एक्ट, एसपीटी एक्ट, पेसा एक्ट के तहत आदिवासियों को झारखंड में जमीन को लेकर विशेष अधिकार हैं। आदिवासियों को भय है कि यूसीसी के लागू होने से ये अधिकार खत्म हो जाएंगे।
यूसीसी के लागू होने से पूरे देश में विवाह, तलाक, विभाजन, गोद लेने और विरासत, उत्तराधिकार एक समान हो जाएगा, लेकिन आदिवासी जिनके रीतिरिवाज और परंपराएं अलग हैं और सदियों से चले आ रहे हैं, अगर उनके कानून यूसीसी के दायरे में आएंगे तो उनके अस्तित्व पर ही संकट आ जाएगा।
संगठनों का तर्क है कि इस कानून के लागू होने से महिलाओं को संपत्ति का समान अधिकार मिल जाएगा। ऐसे में अगर कोई गैर आदिवासी एक आदिवासी महिला से शादी करता है, तो उसकी अगली पीढ़ी की महिला को जमीन का अधिकार मिलेगा। जिससे कि आदिवासियों के जमीन से जुड़े हित प्रभावित होंगे। इसके बाद आदिवासी भूमि जिसकी खरीद बिक्री पर अभी रोक है उसे हड़पने की होड़ लग जाएगी।
विरोध में उतर रहे आदिवासी संगठन
आजसू के संस्थापक और पूर्व विधायक सूर्य सिंह बेसरा ने कहा है कि समान नागरिक संहिता आदिवासी समाज के खिलाफ है। केंद्र सरकार ने इसे लागू करने का प्रयास किया गया, तो आदिवासी समाज इसका तीव्र विरोध करेगा। आदिवासी समाज में महिला और पुरुष की अलग व्यवस्था है। इस समाज का अलग धर्म कोड है जिसे केंद्र सरकार लागू नहीं कर रही है। इस बीच यदि समान नागरिक संहिता लागू किया गया तो आदिवासी समाज राष्ट्र व्यापी आंदोलन कर केन्द्र सरकार के इस तरह के फैसले का पुरजोर विरोध करेगा।
छत्तीसगढ़ सीएम ने पूछे ये सवाल
झारखंड के बाद देश के दूसरे आदिवासी बहुल राज्य छत्तीसगढ़ में भी इसका विरोध हो रहा है। छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल ने पीएम मोदी से सीधा सवाल पूछा है कि इस कानून के लागू होने के बाद आदिवासी संस्कृति और प्रथाओं का क्या होगा। छत्तीसगढ़ में हमारे पास आदिवासी लोग हैं उनकी मान्यताओं और रूढ़िवादी नियमों का क्या होगा, जिनके माध्यम से वे अपने समाज पर शासन करते हैं। अगर यूसीसी लागू हो गया तो उनकी परंपरा का क्या होगा। हिंदुओ में भी कई जाति समूह हैं जिनके अपने नियम हैं।
राजनीति में इसलिए अहम है आदिवासी
- भारत में 10 करोड़ से अधिक आदिवासी हैं। लोकसभा की 47 सीटें आरक्षित की गई हैं। इनमें मध्यप्रदेश में 6, ओडिशा-झारखंड में 5-5, छत्तीसगढ़, गुजरात और महाराष्ट्र में 4-4, राजस्थान में 3, कर्नाटक-आंध्र और मेघालय में 2-2, जबकि त्रिपुरा में लोकसभा की एक सीट आदिवासियों के लिए आरक्षित है। लोकसभा की कुल सीटों का यह करीब 9 फीसदी है। लेकिन गठबंधन राजनीति के दौर में यह आंकड़ा बहुत अहम है।
- आरक्षित सीटों के अलावा मध्यप्रदेश की 3, ओडिशा की 2 और झारखंड की 5 सीटों का समीकरण ही आदिवासी ही तय करते हैं। साथ ही करीब 15 लोकसभा सीटों पर आदिवासी समुदाय की आबादी 10-20 फीसदी के आसपास है, जो जीत-हार में अहम भूमिका निभाती है। लोकसभा की करीब 70 सीटों को आदिवासी प्रभावित करते हैं।
- 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 में से करीब 28 सीटों पर जीत मिली थी। मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान और त्रिपुरा में भाजपा को आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी सीटों पर जीत मिली थी। जबकि 2014 के चुनाव में भी भाजपा को 26 सीटों पर जीत मिली थी। राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात की आदिवासी सीटों पर पार्टी को सफलता मिली थी।
विधानसभा चुनावों में भी प्रभाव डालेंगे आदिवासी
- देश के 10 राज्य मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना के विधानसभा चुनाव में भी आदिवासी वोटर निर्णायक भूमिका में होते हैं। आने वाले दिनों में मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में चुनाव होने हैं। यह वोट बैंक कई सीटों पर हार-जीत तय करता है। मध्यप्रदेश में 21 फीसदी आदिवासी हैं, जिनके लिए 230 में से 47 सीटें आरक्षित हैं। आदिवासी इसके अलावा भी 25 से 30 सीटों पर असरदार हैं।
- इसी तरह राजस्थान में आदिवासियों की संख्या 14 फीसदी के आसपास है। यहां 200 में से 25 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। दोनों पार्टियों के लिए 25 सीटें बेहद अहम हैं। इसलिए पीएम लगातार इस क्षेत्र का दौरा भी कर रहे हैं। जबकि छत्तीसगढ़ की 34 फीसदी आबादी आदिवासियों की है। यहां 90 में से 34 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। यहां भी कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला है। तेलंगाना में आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या भले कम हैं, लेकिन भाजपा-बीआरएस और कांग्रेस के बीच त्रिकोणीय मुकाबले में यह काफी अहम है।
पूर्वोत्तर के आदिवासियों में भी उठ रहे विरोध के सुर
पूर्वोत्तर के राज्यों में भी समान नागरिक संहिता का विरोध तेजी से हो रहा है। असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा और नागालैंड में आदिवासी अपनी अनूठी संस्कृति के साथ रहते हैं। ये आदिवासी अपनी संस्कृति और रीति-रिवाजों को लेकर काफी संवेदनशील हैं। इसमें जरा सा भी दखल का वे उग्र और हिंसक विरोध करते हैं। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मिजोरम, नागालैंड और मेघालय में आदिवासियों की संख्या सबसे अधिक है। मिजो नेशनल फ्रंट के नेता थंगमविया ने कहा था कि सिद्धांत के रूप में यूसीसी की चर्चा करना आसान है, लेकिन इसे मिजोरम में लागू नहीं किया जा सकता है। अगर इसे लागू किया गया तो यहां कड़ा विरोध होगा। मेघालय में आदिवासियों की आबादी 86.1 फीसदी है।
जानकारी के अनुसार, मेघालय की खासी हिल्स ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल ने 24 जून को एक प्रस्ताव पारित कर कहा कि समान नागरिक संहिता खासी समुदाय के रीति-रिवाजों, परंपराओं, प्रथाओं, शादी और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों को प्रभावित करेगा। मेघालय में खासी, गारो और जयंतिया समुदाय के अपने नियम हैं। ये तीनों ही मातृसत्तात्मक समुदाय हैं और इनके नियम निश्चित रूप से यूसीसी से टकराएंगे। जबकि नागालैंड में नागालैंड बैपटिस्ट चर्च काउंसिल के अलावा नागालैंड ट्राइबल काउंसिल ने भी यूसीसी का विरोध करने की घोषणा की है। नागालैंड ट्राइबल काउंसिल का कहना है कि यूसीसी संविधान के अनुच्छेद 371ए के प्रावधानों को कमजोर करेगा।